राजा की मृत्यु के कुछ दिनों बाद श्रद्धेय डॉ कार्पेन्टर द्वारा निम्नांकित संक्षिप्ते संस्मरण लिखा गया जो सूचनाओं के प्रामाणिक स्रोतों (मुख्यत: धर्म विज्ञान और सामान्य साहित्य के मासिक संग्रहालयों में पाये जाने वाले, खंड XIII से XX) ; श्रद्धेय डॉ टी रीज द्वारा जेसस के नीतिवचन के प्राक्कलन से संस्मरण और राजा से स्वयं ।
राम मोहनराय रमाकांत राय के पुत्र थे । उनके दादा मुर्शिदाबाद में रहते थे और मुगलों के अधीन उच्च पद पर कार्यरत थे ; लेकिन अपने जीवन की सांध्य वेला में अपमानित होने के बाद वे बर्धवान जिले में रहने लगे जहाँ उनकी पैतृक सम्पति थी । वहीं राम मोहन राय का जन्म हुआ, सम्भवत: 1774 के लगभग । पिता के संरक्षण में उन्होंने देशज शिक्षा पायी, और पारसी भाषा का ज्ञान अर्जित किया । उसके बाद उन्हें अरबी की शिक्षा के लिए पटना भेजा गया । और अंत में संस्कृत की शिक्षा के लिए बनारस जाना पड़ा ताकि हिन्दुओं की देव भाषा संस्कृत का वे अध्ययन कर सकें । पटना के उनके शिक्षकों ने उन्हें अरस्तु और यूक्लिड की कुछ रचनाओं का अरबी अनुवाद भी पढ़ने के लिए भेजा । संभवत: ऐसा प्रशिक्षण पाकर ही वे दृढ़ निश्चयी और तीक्ष्ण बुद्धि के बन सके जबकि, उनकी नजरों में सम्मानित मुसलमानों से इस्लाम धर्म के बारे में प्राप्त जानकारी के कारण उनके मन में दीक्षित आस्था के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हुई जिसके कारण उन्होंने इस आस्था की प्रारंभिक सरलता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया ।
उनका परिवार अत्यंत सम्मानित ब्रह्म समाजी था ; और वैसे भी, वे जन्मना ब्राह्ण थे ही । उनकी मृत्यु के बाद उनके गले में जनेऊ देखा गया था । उनके पिता ने उन्हें अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों के बारे में प्रशिक्षित किया; लेकिन उन्होंने बहुत पहले विविधताओं को समझ लिया था कि कुछ लोग सर्जक ब्रह्मा की प्रशंसा करते हैं तो कुछ लोग रक्षक विष्णु को महिमामंडित करते हैं और कुछ अन्य संहारक शिव की अराधना करते हैं । ऐसा शायद संभव हो भी पर उनका मस्तिष्क मुसलमानों की आस्था-भक्ति के प्रति आकर्षित हुआ ; और उन्होंने हिन्दुओं की प्रतिमा पूजा पद्धति के निरर्थक और उबाऊ कर्मकांड का प्रारंभ से ही विरोध शुरू किया । अपने पिता की अवज्ञा किये वगैर वे प्राय: उनकी आस्था के बारे में प्रश्न करते । उन्हें संतुष्टि नहीं प्राप्त हुई और उन्होंने अंत में मात्र 15 वर्ष की आयु में ही पैतृक घर छोड़कर तिब्बत वास का निर्णय लिया ताकि उन्हें भिन्न प्रकार की धार्मिक आस्था प्राप्त हो सके । उन्होंने दो-तीन वर्षों का समय उस देश में व्यतीत किया और उन्हें लामा के पूजारियों का कोप भाजन भी बनना पड़ा क्योंकि वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि यह तथाकथित देवता – एक जीवित व्यक्ति – संसार का सर्जक और रक्षक है । इन परिस्थितियों में उन्होंने परिवार के महिला सदस्यों की दयालुता का मोहक अनुभव प्राप्त किया; और चालीस वर्षों के बाद उनके कोमल – संवेदनशील हृदय ने गहरे लगाव के साथ याद किया कि नारी जाति के प्रति उनके मन में श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव है, निस्सन्देह इनके कारण ही उन्हें इस देश में अपरिवर्तित और संस्कृत संभोग के शिष्टाचार का पाठ सीखने को मिला था ।
जब वे हिन्दुस्तान लौटे तब उनसे उनके पिता की ओर से एक शिष्ट मंडल मिला और उन्होंने पूरे सम्मान के साथ उनका स्वागत किया । उसके बाद से वे संस्कृत और अन्य भाषाओं तथा हिन्दुओं के प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन के प्रति समर्पित हो गये । वे अक्सर अपने पिता से चर्चा करते : श्रद्धा भाव के साथ, तथापि उन्होंने कभी भी धर्म के उस संशयवादी स्वरूप को स्वीकार नहीं किया । उनके पिता ने उनके लिए उच्च स्तररीय शिक्षा की व्यवस्था की थी ; लेकिन चूँकि वे स्वयं मुस्लिम दरबार में पले-बढे थे उन्होंने सिद्धान्त: मान लिया था कि इन शिक्षाओं की वजह से प्राचीन भारत के विजेताओं के समक्ष वे अपनी पात्रता स्थापित कर पायेंगे।
वयस्क होने तक राम मोहरन राय का अंग्रेजी ज्ञान अल्प था क्योंकि उन्हें उतना ही पढ़ाया गया था । वेदान्त और केन उपनिषद के संक्षेपण के अंग्रेजी संस्करण के सम्पादक का कहना है कि बाईस वर्ष की अवस्था में उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखना शुरू किया, जिसका प्रयोग उन्होंने पाँच वर्षों के बाद जारी नहीं रखा । जब मैं उनसे परिचित हुआ, वे कठिनाई से अंग्रेजी बोल पाते थे और चर्चा के दौरान सामान्य बातें भी स्पष्ट नहीं हो पाती थी । लेकिन वे शुद्ध अंग्रेजी कतई नहीं लिख पाते थे । बाद में उन्हें राजस्व वसूलने के कार्य के लिए दीवान नियुक्त किया गया, उसी जिले में जहाँ मैं ईस्ट इंडिया कम्पनी की सिविल सेवा में पाँच वर्षों तक समाहर्ता था । सावधानी पूर्वक मेरे सारे सार्वजनिक पत्राचारों को ध्यान सहित अनुसरण करते हुए तथा यूरोपीय भद्र लोगों के साथ पत्राचार और वार्तालाप के कारण उन्होंने अंग्रेजी भाषा का स्तरीय ज्ञान प्राप्त किया ताकि वे अधिक योग्यता के साथ अंग्रेजी बोल-लिख सकें ।
पिता रमाकांत राय लगभग 1804 या 1805 में गुजर गये । इसके तीन वर्षों पूर्व उन्होंने अपनी सम्पति का बंटवारा तीन बेटों के बीच कर दिया था । थोड़े ही दिनों में राममोहन राय एक मात्र वारिश रह गये और इस कारण उनके पास प्रचुर सम्पति थी । इसी समय से उन्होंने अपने देशवासियों के धार्मिक सुधार की योजना शुरू की तथा इन लोगों को समझदार बनाने की प्रक्रिया में उन्होंने अवश्य ही प्रचुर धन खर्च किया होगा क्योंकि इस महत कार्य के लिए उन्होंने अपनी रचनाओं का उदारता पूर्वक वितरण किया । वे बर्द्धवान छोड़कर मुर्शिदाबाद चले आये जहाँ उन्होंने अरबी प्राक्कथन के साथ पारसी भाषा में सभी धर्मों की मूर्ति पूजा के विरोध में शीर्षक पुस्तक प्रकाशित की । किसी ने भी इस पुस्तक का विरोध नहीं किया लेकिने इससे उनके अनेक शत्रु बन गये । 1814 में वे कलकत्ता चले आये जहाँ अंग्रेजी भाषा पढ़ने और इसमें वार्तालाप सीखने के लिए उन्होंने मनोनिवेश किया । उन्होंने लैटिन भाषा का भी कुछ ज्ञान अर्जित किया और गणित के प्रति अधिक ध्यान दिया । इसी समय उन्होंने शहर के पूर्वी छोर पर सर्कुलर रोड पर यूरोपीय शैली का एक मकान बगीचे सहित खरीद लिया । वहीं से उन्होंने तेज तर्रार ऊँचे ओहदे और सम्पदा संपन्न हिन्दुओं से संपर्क साधना शुरू किया । 1818 तक ऐसे कुछ लोग एकत्र हो गये और उन लोगों ने एकेश्वरवाद की पूजा का प्रचार-प्रसार शुरू किया ।
हिन्दू धर्म विज्ञान की पुस्तक वेद हैं जो पुराकाल की श्रेष्ठ रचनाएँ हैं । इनमें शब्दाडम्बर ऐसे हैं कि इनकी शैली दुरूह हो गयी है, और लगभग 2000 वर्षों पूर्व व्यास ने संपूर्ण वेदों का सारगर्भित भाव प्रस्तुत किया जिसके साथ अत्यधिक कठिन अंशों की व्याख्या दी गयी थी । व्यास के इस सार संग्रह को वेदांत या सभी वेदों का समाधान कहा गया । इसका एक हिस्सा कर्मकांड तो दूसरा हिस्सा धर्म के सिद्धांतों का सम्मान करता है । यह संस्कृत भाषा में लिखा गया है । राम मोहन राय ने अपने देशवासियों के बांग्ला हित में तथा अन्य हिन्दुस्तानी भाषाओं में इसका अनुवाद किया और परवर्ती काल में इसका संक्षिप्ताकार प्रकाशित कराया तथा उदारतापूर्वक व्यापक वितरण करवाया । इन संक्षिप्त प्रस्तुतियों में से 1816 में एक अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक वेदान्त को “ब्राह्मणवादी ईश्वर मिमांसा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सम्भावित कार्य” के रूप में पेश करता है जिसमें ईश्वर सत्ता का एकाधिकार स्थापित करता है, और एकमात्र वहीं मांगलिक और पूज्य है । अपना प्राक्कथन समाप्त करते हुए वे लिखते हैं कि हिन्दू मूर्ति पूजकों द्वारा शुरू किये गये असुविधानक या वस्तुत: हानिकारक कर्मकांडों पर मैं निरंतर प्रहार करता रहा क्योंकि किसी अनेकेश्वर वादी की अपेक्षा इनसे समाज की सुन्दर संरचना की अत्यधिक क्षति होती है ; और अपने देशवासियों के प्रति करूणा के तहत मैंने विवश होकर उन्हें सपने से जगाने या उनकी गलतियों को ठीक करने का हर संभव प्रयास किया । उन्हें उनके धर्म ग्रन्थों से परिचित कराकर इस लायक बनाया जा सके कि वे सच्ची निष्ठा के साथ प्रकृति देवता की सत्ता एवं सर्वव्याप्ति को अनुभूत कर सकें । अन्त:करण से पूरी निष्ठा के साथ, किये गये कुछ कार्यों के कारण ब्राह्मण कुल में जन्म लेने की वजह से मेरे कुछ संबंधियों ने मेरी शिकायत और निन्दा की । जिनके पूर्वग्रह सशक्त और वर्तमान व्यवस्था के अनुसार अस्थायी रूप से लाभकारी थे । लेकिन शांतमन से मैं विश्वास करता हूँ कि एक दिन ऐसा आएगा जब मेरे सहज प्रयासों का न्यायपूर्वक विवेचन किया जाएगा और शायद आभार के साथ उसे स्वीकारा जाएगा । कुछ भी हो, लोग कुछ भी कहें, कोई भी मुझे इस आत्मतोष से वंचित नहीं कर सकता कि मेरे उद्देश्यों को वह ईश्वर देखता है और अपनी कृपा की वर्षा सब पर करता रहता है ।
वेदान्त के प्रकाशन के बाद, राम मोहन राय ने वेदों के कुछ प्रमुख अध्यायों का बांग्ला और अंग्रेजी में मुद्रण करवाया । इस श्रृंखला की प्रथम पुस्तक का प्रकाशन 1816 में हुआ और इसका शीर्षक केन उपनिषद का एक अनुवाद, सामवेद का एक अध्याय जिसमें महान शंकराचार्य की व्याख्या के अनुसार ईश्वर के एकात्मवाद और सर्व-शक्तिमान को स्थापित करते उन्हें ही एकमात्र पूजनीय माना गया है । वेदान्त के पुनर्मुद्रित संक्षिप्ताकार में इसे 1817 में लंदन में उनके कुछ करीबी लोगों ने इसे सलंग्न कर दिया । इन महानुभाव के पास राममोहन राय का एक पत्र अंग्रेजी प्राक्कथन के साथ है जो दर्शाता है कि उन्होंने उस समय तक किस प्रकार अंग्रेजी भाषा संबंधी अपनी कठिनाइयों को ठीक कर लिया था । अपने पत्र में वे कहते हैं कि “धार्मिक सत्य के प्रति मेरी लम्बी और अनवरत शोधों का परिणाम था कि ईशा मसीह के उपदेश मुझे नैतिक सिद्धांतों के अधिक अनुरूप लगते हैं और मेरी जानकारी में समझदार लोगों के लिए सर्वाधिक स्वीकार्य हैं ; और मैंने हिन्दुओं को पृथ्वीलोक के किसी अन्य धर्मावलम्बी से सामान्यत: अधिक अंधविश्वासी और दयनीय पाया है, अपने धार्मिक कर्मकांडों और जागतिक समस्याओं के निष्पादन में । वे आगे की पंक्तियों में बताते हैं कि उन्होंने “हिन्दुओं के लौकिक और परलौकिक सुखद जीवन यात्रा के लिए क्या कुछ किया है” और इस बात का जिक्र करते हैं कि किस प्रकार उन्हें स्वार्थी तत्वों वाले उनके ब्राहृमण नेताओं से लोहा लेना पड़ा और उनके निकट संबंधियों ने उनका परित्याग कर दिया तथा इसके परिणाम स्वरूप वे नितांत अकेले और दुखी हो गये । इन विकट परिस्थितियों में उनके लिए एकमात्र सांत्वना देने के लिए कुछ था तो वह स्कॉटलैंड और इंग्लैंड के उनके यूरोपीय मित्रों से समझदार वार्तालाप था । उसी पत्र में उन्होंनें तुरंत इंग्लैंड के लिए रवाना होने की आशा व्यक्त की और उन्हें ऐसा करने से मना किया गया । उनके मतों के प्रचार-प्रसार द्वारा अनेक लोग सत्य संधान के प्रति सुमुख हुए ।
यह आश्चर्यजनक नहीं है कि कुछ स्वार्थी तत्वों ने उन्हें विधर्मियों का प्रशंसक बताया तथा उनका चरित्र संहार भी किया । कुछ लोगों ने सार्वजनिक तौर पर उन्हें दु:साहसी, दंभी, उद्धत और अपवित्र कहा । उनके परिवार के प्रत्येक सदस्य ने उनका विरोध किया । उन्हें अपनी माता का भी कोपभाजन बनना पड़ा क्योंकि उनके करीबी लोगों ने बेटे के संबंध में प्रतिकुल बातें बता रखी थीं । प्रारंभिक दिनों में उनकी माता बहुत ही समझदार महिला थीं । लेकिन अंधविश्वास और रूढ़िवाद की वजह से वह उनके प्रबल शत्रुओं में से एक थीं । हालाँकि वे अपनी माँ से स्नेहपूर्ण संबंध बनाये हुए थे ; और अपनी चमकती आँखों के साथ उन्होंने हमें बताया था कि उनकी माता ने गलती मानते हुए अपने आचरण के लिए दु:ख प्रकट किया था । यह मानते हुए कि बेटे की बातें सत्य आधारित हैं, वह मूर्तिपूजकों के बंधन से मुक्त नहीं हो सकीं । जगन्नाथ नगरी ‘पुरी’ के लिए रवाना होने से पहले उन्होंने अपने बेटे से कहा था कि राम मोहन ; तुम सही हो ; लेकिन मैं वृद्ध अबला ! मैं उन मान्यताओं का परित्याग नहीं कर सकती जिनसे मुझे सुख मिलता है । उनका अनुपालन वह आत्मोत्सर्ग कर करती रहीं । उन्होंने यात्रा के समय किसी नौकरानी को अपनी सेवा के लिए नहीं रखा ; या कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कि उन्हें यात्रा में सुख मिले । वहाँ पहुँच कर उन्होंने जगन्नाथ भगवान की मंदिर को बुहारने के काम में स्वयं को नियुक्त किया । अपने जीवन के अंतिम समय वह वहीं रहीं – ज्यादा नहीं तो लगभग 1 वर्ष, और वहीं गुजर गईं । उन्होंने बताया कि अपनी मृत्यु के पहले उन्होंने जो कुछ घटित हुआ था, उसके लिए दु:ख प्रकट किया और एकेश्वरवाद में अपना विश्वास व्यक्त किया तथा हिन्दू अंधविश्वास की निरर्थकता को भी माना । कलकत्ता की एक पत्रिका के संपादक डी कोस्टा ने इस असाधारण व्यक्ति के अनेक प्रकाशन 1818 में अब्बे ग्रेग्वायर को उनके वृतांत के साथ भेजा और ग्रेग्वायर के माध्यम से राम मोहन राय फ्रांस में व्यापक रूप से जाने गये ओर उनके कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी ।
डीं कोस्टा का कहना है कि वे यत्नपूर्वक उन सभी बातों की अनदेखी करते थे जिनसे लोग उन्हें जाति से ब्राह्मण समझें क्योंकि ब्राह्मण होने के नाते उन्हें अपने देशवासियों को निर्देश देने और उनके धर्मग्रन्थों का अधिकारी बनाता था । उनका कहना है कि उनके वार्तालाप, उनके कार्यकलाप और आचरण किसी भी स्वाभिमानी के सशक्त लक्षण दर्शाते हैं ; जबकि सामान्यत: मस्तिष्क की क्षुद्रता ओर दुर्बलता हिन्दू की पहचान है ; और उनकी प्रातिभा बातचीत से अक्सर पता चलता है कि तनाव के समय वे आधे गंभीर तो आधे विनोदी थे, वे अपने देश के लिए कुछ करना चाहते थे । जहाँ तक उस समय के उनके बाह्य स्वरूप की बात है डीं कोस्टा बताते हैं कि वे लम्बे और शक्तिशाली हैं ; उनके नियमित लक्षण और स्वभावगत गंभीर मुखाकृति एक आभामय उपस्थिति देते हैं ; उनके मुँह पर उदासी झलकती थी । एब्बे ग्रेग्वायर आगे बताते हैं कि जिस संयम के साथ उन्होंने अपनी रचनाओं पर किये तीखे प्रहारों का तर्क पूर्ण उत्तर दिया, उससे उनकी तर्क शक्ति और हिन्दुओं के धर्मग्रंथों का गहरा अध्ययन देखने को मिलता है ; और जो आर्थिक उत्सर्ग उन्होंने किये, उससे उनके वित्तरागी स्वभाव का पता चलता है जिसे प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता और न उच्च स्वरों में प्रशंसा ही की जा सकती है ।
इसी काल खंड में लेफ्टीनेंट कर्नल फिट्ज़्क्लारेंस, जो अब तक मनस्टर के सामंत हो गये थे, से राममोहन राय का परिचय हुआ । वे इस “असाधारण ब्राह्मण” की प्रतिभा और विद्या की उच्च स्वरों में प्रशंसा करते कहते हैं कि हमारी भाषा का गहरा ज्ञान और इसके प्रयोग में उनकी दक्षता थी । हमारे साहित्य के साथ-साथ उन्हें अरबी और संस्कृत साहित्य का व्यापक ज्ञान था । उन्हें यूरोप की राजनीति, विशेष रूप से इंग्लैंड, का स्पष्ट परिचय था । वे अच्छे व्यक्तित्व और सलीकेदार व्यवहार के धनी थे । सामंत की बातें उनकी आश्चर्यजनक क्षमता, लगन और तीक्ष्ण स्मरणशक्ति को दर्शाती है 1 इसकी पुष्टि अन्य स्रोतों से भी होती है । लेकिन लेखक को यह गलत जानकारी प्राप्त थी कि उन्हें अपनी जाति का परित्याग करना पड़ा था । राम मोहन राय ने कुछ दिनों पहले ही बताया था कि उनसे जाति सूचक परिचय छीन लेने के सारे प्रयास किये गये और भारी आर्थिक खर्च वहन करते हुए उन्हें कानूनी कार्रवाई में अपनी जाति का पचिय बनाये रखना पड़ा । ऐसा न करने पर उन्हें पैतृक सम्पति से हाथ धोना पड़ता । अपने समृद्ध परिचय के माध्यम से उन्होंने हिन्दु नियमानुसार अपने दुश्मनों के प्रयास को निरस्त किया था और न्यायालय में सिद्ध किया था कि उन्हें उनके अधिकार से कोई वंचित नहीं कर सकता । ये कानूनी कार्यवाहियाँ वर्षों चल सकती थीं । राम मोहन राय के इंग्लैंड रवाना होने से पहले प्रादेशिक न्यायालय में इन्हें समाप्त मान लिया गया था । कलकत्ता छोड़ते वक्त उन्होंने अपने दोनों बेटों को समझाते हुए कहा था कि वे अपने चचेरे भाइयों के कृत्य भूल जाएं ।
देशज स्कूलों की स्थापना और इनकी देख-रेख में सहयोग देने के अतिरिक्त, राममोहन राय ने सती दाह प्रथा को रोकने की दिशा में सफल और सार्थक प्रयास किया । इस विषय पर अपनी एक पुस्तिका को उन्होंने Marchioness of HASTINGS को समर्पित किया, जब the Marquis गर्वनर जनरल थे।
यहr पहले ही बताया जा चुका है कि 1817 से ही उन्होंने अपना ध्यान ईसाई धर्म के प्रति आकृष्ट किया था । लेकिन जब उन्हें इसाई लेखकों और उन इसाई शिक्षकों जिनसे वे पत्राचार करते थे, द्वारा ईसाइत के विभिन्न प्रकार के उपदेशों को आवश्यक बताया गया तो वे किंकर्तव्य विमूढ हो गये; और इन कारणो से उन्होंने स्वयं मौलिक धर्म ग्रंथों को पढ़ने का संकल्प लिया । इसके लिए उन्होंने हिब्रू और ग्रीक भाषा का ज्ञान प्राप्त किया । नैतिकता की ईसाई व्यवस्था की उत्कृष्टता और महता से वे काफी प्रभावित हुए । उन्होंने 1820 में मुख्यत: प्रथम तीन ईसा चरित्रों से चयनित अंशों की एक श्रृंखला अंग्रेजी, संस्कृत और बांग्ला में प्रकाशित की जिसका शीर्षक उन्होंने ‘जेसस का ज्ञान बोध, शांति और खुशहाली के लिए मार्ग दर्शन’ दिया । उन्होंने ईसाई धर्म प्रचारकों के उन अंशों को छोड़ दिया जिसे उन लोगों ने विशिष्ट उपदेश माना था; और चमत्कार के वर्णन भी (सिवाय उन अशों को जहाँ ईसा मसीह के वार्तालाप एक दूसरे से संबद्ध हो) – यह मानते हुए कि उनके देश वासियों को ये बातें अविश्वसनीय लग सकती हैं जबकि ज्ञान-बोध वाले अंश को उन्होंने विभिन्न मतावलम्बियों और भिन्न प्रकार की समझदारी रखने वाले लोगों के दिल और दिमाग को सुधारने के लिए वांछित प्रभाव डालने वाला माना । अपने प्राक्कथन की समाप्ति पर वे कहते हैं कि धर्म और नैतिकता के सामान्य नियम प्रशंसनीय ढंग से बताये गये हैं ; मनुष्य के विचार उन्नत होकर एकेश्वरवाद के सिद्धांत को मानने लगेंगे ; जो ईश्वर समान रूप से सभी जीवधारियों पर बिना किसी जाति, समुदाय और संपदा के भेदभाव के सबका लालन-पालन करता है और सब पर जिसकी कृपा दृष्टि अनवरत बनी रहती हैं । ये नियम मानव जाति के आचरण को नियंत्रित करेंगे तथा उन्हें ईश्वर, स्वयं और समाज के प्रति कर्तव्यों के निर्वहन में मदद प्रदान करेंगें ; मेरा विश्वास है कि इनके वर्तमान स्वरूप के प्रचार से सर्वोत्तम प्रभाव पड़ेगा । इस कृति का प्रकाशन छद्म नाम से किया गया था, लेकिन स्रोत को बिना छुपाये ।
इस प्रकाशन के फलस्वरूप उन्हें भारतीय मित्रों से तीखी आलोचनात्मक टिप्पणियों का सामना करना पड़ा तथा संकलनकर्ता को अन्याय पूर्ण तरीके से विधर्मी कहा गया । “सत्य के मित्र” के रूप में राममोहन राय को ईसाई समुदाय के लिए ईसा मसीह के उपदेशों की रक्षा में अपील करनी पड़ी जिसमें वे घोषणा करते हैं कि प्राक्कथन में दी गयी अभिव्यक्तियों से प्रतिद्वन्द्वी को यह अहसास होना चाहिए था कि संकलन कर्ता एक ईश्वर में विश्वास नहीं करता जिसकी प्रकृति और सत्व मानवीय समझ से परे है, बल्कि वह ईसाई व्यवस्था में उद्घाटित सत्यों के प्रति आस्थाशील है । वे आगे यह भी बताते हैं कि ईसा मसीह के उपदेश न सिर्फ मानवजाति को अपने कर्तव्य करने के लिए अनुदेश देने के लिए आवश्यक हैं बल्कि इनके माध्यम से हम अपने पापों से बच सकते हैं और ईश्वर की दया प्राप्त कर हम अपनी भावनाओं को वश में कर उनके निर्देशों का पालन कर सकते हैं । वे उस व्यवस्था का समर्थन करते हैं जिसे संकलनकर्ता ने अपना कर देशज लोगों के लिए ईसाइयत का परिचय दिया था । वे अपील करते हैं कि लगभग 3/5 भाग हिन्दू है और 2/5 भाग मुसलमान, मुसलमान अपनी शैशवास्था से एक ईश्वर में विश्वास करते हैं और उनके साथ अपने धार्मिक विवाद के बाद उनका अपना अनुभव भी बताता है कि वे उन्हें नीति वचनों से परिचित करा कर उनका भला ही कर रहे हैं । वैसे नीति वचनों का अनुपालन ईसाईयों के लिए आवश्यक है और इस प्रकार किसी भी तरीके से ये निर्देश मुसलमानों के संत्रास या हिन्दुओं के उपहास को उत्तेजित नहीं करते । ऐसी रूढ़िवादिताओं, सिद्धांतवादों ओर अन्य उद्धरणों को इन आलोचनाओं का सामना नहीं करना पड़ता है, और उन लोगों को भी इस बात का अहसास होता है कि संकलन का उद्देश्य उनकी भलाई ही है । और ऐसे कार्य किसी घोषित कार्य योजना के तहत किये जाते हैं । धर्म-नैतिकता के ऐसे उपदेशों का प्रचार-प्रसार वैश्विक शांति और सद्भाव को बढ़ावा देने के उद्देश्य से किया जाता है । समीक्षक की यह आपत्ति कि ईसा मसीह के उपदेश यह नहीं बताते कि किस प्रकार पापों से मुक्ति मिले और भगवत् कृपा प्राप्त हो, सत्य के मित्र संकलन से कुछ उद्धरण देते हैं कि वह पैगमबरों का पैगम्बर पापियों को पश्चाताप करने के लिए कहता है । पुरानी और नयी टेस्टामेंट से वैसे ही अनेक उद्धरण देते यह बताया गया कि भगवान से माफी और दया प्राप्त करने का उपाय निष्ठा भाव से पश्चताप है जिससे पापी मुक्ति दाता द्वारा माफ किया जाता है ।
इन छद्यनाम के प्रकाशनों में श्रीरामपुर कॉलेज के डॉ मार्शमैन ने तीखी आलोचनाओं की एक श्रृंखला प्रकाशित की जिसके कारण राम मोहन राय को अपना नाम देकर महत्वपूर्ण उत्तर-द्वितीय अपील – देना पड़ा जिसमें उनकी बुद्धिमता की बारीकी, उनके आध्यात्मिक ज्ञान की सीमा और विश्लेषणात्मक यथार्थता, उनकी अन्वेषी दक्षता, व्यवस्था की न्यायप्रियता, अपने ही मतों का प्रांजल वर्णन और शत्रुओं का अवस्थान ध्वस्त करने वाली कुशलता थी । इस विवाद के सारे प्रकाशन शीघ्र ही लंदन में पुनर्मुद्रित किये गये ; और जो इस महान व्यक्ति की संवेदना से परिचित होना चाहते हैं ; जहाँ तक इस व्यक्ति के ईसाई विश्वास और ईश्वर तथा ईसा मसीह को सम्मान देने के उनके विचार की बाते हैं ; विश्वास के साथ तथा विशेष तरीके से ‘ईसामसीह के उपदेश’ की रक्षा में ईसाई समुदाय के लिए द्वितीय अपील को संदर्भित किया जा सकता है । ईश्वर को सम्मान देने संबंधी उनके सिद्धांत का वर्णन स्वयं करते हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर जो धार्मिक आदर का एक मात्र उचित कारक है – वह व्यक्ति रूप में एक और अविभाज्य है ; धर्म ग्रंथों में असंख्यवादों पर विश्वास स्वरूप हमें उस दयालु पिता से आशीर्वाद के लिए हमेशा उम्मीद बनाये रखनी चाहिए, पश्चाताप के माध्यम से जिसे हमारी विफलताओं के लिए क्षमा प्राप्त करने का एक मात्र साधन बताया गया है । हमें सदाचरण के साथ उनकी पूजा करनी चाहिए और अन्तत: मोक्ष, उनके प्रेरक प्रभाव जिसे पवित्र आत्मा कहा जाता है के माध्यम से निष्ठापूर्ण प्रार्थना और अनुनय – विनय के द्वारा हो सकती है । वे ईसा मसीह को ईश्वर मानते हुए उनमें निर्विवाद आत्मबल देखते हैं क्योंकि उनमें सत्यनिष्ठा, सरलता और आदर्श विद्यमान हैं । उन्हें वे ऐसा व्यक्ति मानते हैं जिनमें सत्य ही सत्य है और जिन्हें अपने उपदेशों और उदाहरणों से मानव जाति को मार्ग दर्शन देने के लिए दैवी विधान के साथ भेजा गया है । उस महापिता से मानव जाति की मोक्ष के लिए इस संसार में आने का अधिकारा-पत्र उन्हें प्राप्त है । उन्हें आश्चर्यजनक कार्य निष्पादित करने के लिए अधिकृत किया गया है । वे उनके विनम्र स्वभाव की चर्चा करते कहते हैं कि उन्हें महापिता से सभी शक्तियाँ प्राप्त है । वे स्वर्ग के देवदूतों से भी श्रेष्ठ हैं । वे आदि से अनादि काल तक विद्यमान हैं । महापिता ने सभी चीजें उनके द्वारा और उनके लिए निर्मित की है । वे बड़ी संतुष्टि के साथ (पृष्ठ 162-167) इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ईसा मसीह के अनुदेशों से उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके और महापिता के बीच की एकता इच्छा और परिकल्पना का अनवरत मेल-मिलाप है जैसा कि उनके शिष्यों में था । उनके अनुभवों ने स्पष्ट किया है कि ऐसी लाक्षणिक अभिव्यक्तियाँ जब टुकड़ों में पढ़ी जाती हैं और संदर्भ के बिना होती है तो शेष धर्म ग्रंथों के मूल भाव के सिद्धांतों से मेल नहीं खातीं । मुझे अपने देशवासियों के समक्ष न्यू टेस्टामेंट के सारे सिद्धांतों को रखने से नहीं बचना चाहिए था क्योंकि उनमें से सर्वाधिक अनजान व्यक्ति को उनके पूर्वाग्रह मुक्त विचारों पर छोड़ दिया जाए तो वे इस सत्य से परिचित होंगे कि ईश्वर और उनके दूत ईसा मसीह के बीच एकता विद्यमान है ।
द्वितीय अपील के कारण डॉ मार्शमैन ने दूसरी रचना प्रकाशित की ; जिसका उत्तर राममोहन राय ने 1823 में प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था अंतिम अपील । उनकी पहले की रचनाएँ बैपटिस्ट मिसिनरी प्रेस से मुद्रित हुई थी लेकिन जब प्रेस के कार्यकारी मालिक ने इस रचना को मुद्रित करने से मना कर दिया तब् राममोहन राय ने टाइप खरीद कर अपनी रचनाओं का मुद्रण प्रारंभ किया । इन पर मुद्रित हैं “कलकत्ता : यूनिटेरियन प्रेस, धर्मतल्ला” से मुद्रित । उन्हें देशज सहायताओं पर मुख्य रूप से निर्भर रहना पड़ता था । और इसके फलस्वरूप मूल रचना में अनेक गलतियाँ हैं । प्राक्कथन में वे बताते हैं कि इस विवाद ने उन्हें अन्य प्रकाशनों से रोका जिसकी योजना उन्होंने अपने देशवासियों के लिए बनाई थी । इसके साथ ही उन्हें अन्य साहित्यिक गतिविधियों से भी दूर रहना पड़ा और इस कारण वे अपने अत्यंत करीबी मित्रों के व्यवहार में वैसी घनिष्ठता नहीं पाते थे ; कुछ भी हो उन्होंने कुछ और करने को कभी नहीं सोचा क्योंकि उनका कहना था कि दुनिया चाहे कुछ भी कहे, मेरी अपनी समझ मेरे विगत कर्मों का अनुमोदन करती है और इसे मैं सत्य का कारक मानता हूँ ।
भारतीय राजपत्र के संपादक इस चर्चा के विज्ञापन और इस विशिष्ट देशवासी के अन्य श्रम साध्य कार्यों के बारे में लिखते हैं कि हम उन्हें विशिष्ट इस लिए कहते हैं क्योंकि वे जाति, श्रेणी और सम्मान में वैसे हैं ; और सभी लोगों में वह विशिष्ट हैं अपने परोपकार की भावना, उच्च शिक्षा तथा सामान्य रूप से बौद्धिक आधिपत्य के कारण । ईसा मसीह के उपदेशों के बारे में उत्पन्न विवाद के बारे में संपादक का कहना है कि इसका जो भी प्रभाव हुआ हो, इसके कारण उनके मस्तिष्क की तीक्ष्णता, बौद्धिकता की तार्किक शक्ति और तर्क की विरल सुन्दरता देखने को मिलती है । धार्मिक चर्चा के क्षेत्र में एक ऐसे सशक्त योद्धा का उदय हुआ था जिसका कोई सानी नहीं था । हमें यह बाध्य होकर कहना पड़ रहा है ।
पहले ही प्रस्तुत जन समर्थनों के साथ प्रसिद्ध सिसमांडी की प्रशंसा का संयोजन किया जा सकता है जिन्होंने 1824 के लिए रिव्यू इनसाइक्लोपेडिक के एक लेख में जाति व्यवस्था और विधवाओं के उत्सर्ग के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए, इस प्रकार लिखा था कि हिन्दुओं मं् एक शानदार सुधार की प्रक्रिया शुरू हुई है । एक ब्राह्मण, भारत को जानने वाले इस बात से सहमत होंगे, राम मोहन राय जो अत्यंत गुण संपन्न और ज्ञानी है ने अपने देशवासियों के लिए इस बात पर बल देना शुरू किया है कि वे सच्चे ईश्वर की पूजा करना शुरू करें और उनमें नैतिकता तथा धर्म का समागम हो । उनके साथ लोगों की संख्या कम है लेकिन यह संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। यूरोप में हुए सभी परिवर्तनों से वे अपने देशवासियों को अवगत कराते हैं। वे किसी मिशनरी से अधिक धार्मिक और ईसाई धर्म के प्रचारक हैं ।
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